सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
वृन्तादिति॥ विभातवायुः प्रभातवायुः स्वाभाविकं नैसर्गितं ते तव मुखमारुतस्य निःश्वासपवनस्य सौरभ्यम्। तादृक्सौगन्ध्यमित्यर्थः। परगुणेनान्यदीयगुणेन। सांक्रामिकगन्धेनेत्यर्थः। ईप्सुराप्नुमिच्छुरिव। आप्ज्ञप्यृधामीत्
(अष्टाध्यायी ७.४.५५ ) इतीकारादेशः। अनोकहानां वृक्षाणां श्लथं शिथिलं पुष्पं वृन्तात् प्रसवबन्धनात्। वृन्तं प्रसवबन्धनम्
इत्यमरः (अमरकोशः २.४.१५ ) । हरत्यादत्ते। अरुणांशुभिन्नैस्तरणिकिरणोद्बोधितैः सरसि जातैः सरसिजैः कमलैः सह। तत्पुरुषे कृति बहुलम्
(अष्टाध्यायी ६.३.१४ ) इति सप्तम्या अलुक्। संसृज्यते संगच्छते। सृजेर्दैवादिकात्कर्तरि लट् ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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वृ | न्ता | च्छ्ल | थं | ह | र | ति | पु | ष्प | म | नो | क | हा | नां |
सं | सृ | ज्य | ते | स | र | सि | जै | र | रु | णां | शु | भि | न्नैः |
स्वा | भा | वि | कं | प | र | गु | णे | न | वि | भा | त | वा | युः |
सौ | र | भ्य | मी | प्सु | रि | व | ते | मु | ख | मा | रु | त | स्य |
त | भ | ज | ज | ग | ग |