सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
निद्रेति॥ चन्द्रारविन्दराजवदनादयो लक्ष्मीनिवासस्थानानीति प्रसिद्धिमाश्रित्योच्यते। निद्रावशेन निद्राधीनेन। स्त्र्यन्तरासङ्गेऽत्र ध्वन्यते। भवता पर्युत्सुः कत्वमपि त्वय्यनुरक्तत्वमपीत्यर्थः। प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च
(अष्टाध्यायी २.३.४४ ) इति सप्तम्यर्थे तृतीया। अपि
शब्दस्तद्विषयानुरागस्यानपेक्ष्यत्वद्योतनार्थः। निशिखण्डिता भर्तुरन्यासङ्गज्ञानकलुषिताऽबलेव नायिकेव। ज्ञातेऽन्यासङ्गविकृते खण्डितेर्ष्याकषायिता
(२।२५) इति दशरूपके। अनवेक्षमाणाऽविचारयन्ती सती। उपेक्षमाणेत्यर्थः। ह्यनवेक्ष्यमाणा
इति पाठे निद्रावशेन भवताऽनवेक्ष्यमाणाऽनिरीक्ष्यमाणा। कर्मणि शानच्। लक्ष्मीः प्रयोजककत्रीं। येन। प्रयोज्येन चन्द्रेण। पर्युत्सुकत्वं त्वद्विरहवेदनाम्। कालाक्षमत्वमौत्सुक्यं मनस्तापज्वरादिकृत्
इत्यलंकारे। विनोदयति निरासयतीति योजना। शेषं पूर्ववत्। नाथस्त्वर्थोपपत्तिमपश्यन्निमं पक्षमुपैक्षिष्ट। लक्ष्मीर्येन चन्द्रेण सह। त्वदाननसदृशत्वादिति भावः। विनोदयति विनोदं करोति। विनोद
शब्दात् तत्करोति तदाचष्टे
(ग.सू.२०४) इति णिच्प्रत्ययः। सादृश्यदर्शनादयो हि विरहिणां विनोदस्थानानीति भावः। स चन्द्रोऽपि दिगन्तलम्बी पश्चिमाशां गतः सन्। अस्तं गच्छन्नित्यर्थः। अत एव त्वदाननरुचिं त्वन्मुखसादृश्यं विजहाति। त्यजतीत्यर्थः। अतो निद्रां विहाय तां लक्ष्मीमनन्यशरणं परिगृहाणेति भावः ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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नि | द्रा | व | शे | न | भ | व | ता | प्य | न | वे | क्ष | मा | णा |
प | र्यु | त्सु | क | त्व | म | ब | ला | नि | शि | ख | ण्डि | ते | व |
ल | क्ष्मी | र्वि | नो | द | य | ति | ये | न | दि | ग | न्त | ल | म्बी |
सो | ऽपि | त्व | दा | न | न | रु | चिं | वि | ज | हा | ति | च | न्द्रः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |