सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
रात्रिरिति॥ हे मतिमतां वर! निर्धारणे षष्टी। रात्रिर्गता। शय्यां मुञ्च। विनिद्रो भवेत्यर्थः। विनिद्रत्वे फलमाह-धात्रेति॥ धात्रा ब्रह्मणा जगतो धूर्भारः धूः स्याद्यानमुखे भारे
इति यादवः। द्विधैव। द्वयोरेवेत्यर्थः। एवकारस्तृतीयनिषेधार्थः। विभक्ता ननु विभज्य स्थापिता खलु। तत्कितम आह-तां धुरमेकत एककोटौ तव गुरुः पिता विनिद्रः सन् बिभर्ति। तस्या धुरो भवान्। धुरं वहतीति धुर्यो भारवाही। तस्य पदं वहनस्थानम्। अपरं यद्धुर्यपदं तदवलम्बी। ततो विनिद्रो भवेत्यर्थः। न ह्युभयवाह्यमेको वहतीति भावः॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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रा | त्रि | र्ग | ता | म | ति | म | तां | व | र | मु | ञ्च | श | य्यां |
धा | त्रा | द्वि | धै | व | न | नु | धू | र्ज | ग | तो | वि | भ | क्ता |
ता | मे | क | त | स्त | व | बि | भ | र्ति | गु | रु | र्वि | नि | द्र |
स्त | स्या | भ | वा | न | प | र | धु | र्य | प | दा | व | ल | म्बी |
त | भ | ज | ज | ग | ग |