सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तत्रेति॥ तत्रोपकार्यायाम्। स्वयंवरनिमित्तं समाहृतः संमेलितो राजलोको येन तत्कमनीयं स्पृहणीयं कन्याललाम कन्यासु श्रेष्ठम्। ललामोऽस्त्री ललामापि प्रभावे पुरुषे ध्वजे। श्रेष्ठभूषाशुण्डशृङ्गपुच्छचिह्नाश्वलिङ्गिषु
इति यादवः। लिप्सोर्लब्धुमिच्छोः। लभेः सन्नन्तादुप्रत्ययः। अजस्य भावावबोधे पुरुषस्याभिप्रायपरिज्ञाने कलुषाऽसमर्था दयितेव। रात्रौ निद्रा चिरेण नयनाभिमुखी बभूव। राजानं कामिनं चौरं प्रविशन्ति प्रजागराः
इति भावः। अभिमुखी
शब्दो ङीषन्तश्च्व्यन्तो वा ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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त | त्र | स्व | यं | व | र | स | मा | हृ | त | रा | ज | लो | कं |
क | न्या | ल | ला | म | क | म | ली | य | म | ज | स्य | लि | प्सोः |
भा | वा | व | बो | ध | क | लु | षा | द | यि | ते | व | रा | त्रौ |
नि | द्रा | चि | रे | ण | न | य | ना | भि | मु | खी | ब | भू | व |
त | भ | ज | ज | ग | ग |