सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तस्येति॥ रघुप्रतिनिधी रघुकल्पः। रघुतुल्य इत्यर्थः। उक्तं च दण्डिना सादृश्यवाचकप्रस्तावे-कल्पदेशीयदेश्यादि प्रख्यप्रतिनिधी अपि
इति। सोऽजः प्रणतैर्नमस्कृतवद्भिः। कर्तरि क्तः। तस्य भोजस्याधिकारो नियोगस्तस्य पुरुषैः। अधिकृतैरित्यर्थः। प्रदिष्टां निर्दिष्टां प्राग्द्वारस्य वेद्यां विनिवेशितः प्रतिष्ठापितः पूर्णकुम्भो यस्यास्ताम्। स्थापितमङ्गलकलशामित्यर्थः। रम्यां रमणीयां नवोपकार्यां नूतनं राजभवनम्। उपकार्या राजसद्मन्युपचारचितेऽन्यवत्
इति विश्वः। मदनो बाल्यात्परां शैशवादनन्तरां दशामिव। यौवनमिवेत्यर्थः। अध्युवासाधिष्ठितवान्। तत्रोषितवानित्यर्थः। उपान्वध्याङ्वसः
(अष्टाध्यायी १.४.४८ ) इति कर्मत्वम् ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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त | स्या | धि | का | र | पु | रु | षैः | प्र | ण | तैः | प्र | दि | ष्टां |
प्रा | ग्द्वा | र | वे | दि | वि | नि | वे | शि | त | पू | र्ण | कु | म्भाम् |
र | म्यां | र | घु | प्र | ति | नि | धिः | स | न | वो | प | का | र्यां |
बा | ल्या | त्प | रा | मि | व | द | शां | म | द | नो | ऽध्यु | वा | स |
त | भ | ज | ज | ग | ग |