सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
स इति॥ स गजो विद्धमात्रस्तडितमात्रः किल न तु प्रहृतस्तथापि नागरूपं गजशरीरमुत्सृज्य तेन वृत्तान्तेन विस्मितैस्तद्विस्मितैः सैन्यैर्दृष्टः सन् । स्फुरतः प्रभामण्डलस्य मध्यवर्ति कान्तं मनोहरं व्योमचरं वपुः प्रपेदे प्राप ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
स | वि | द्ध | मा | त्रः | कि | ल | ना | ग | रू | प |
मु | त्सृ | ज्य | त | द्वि | स्मि | त | सै | न्य | दृ | ष्टः |
स्फु | र | त्प्र | भा | म | ण्ड | ल | म | ध्य | व | र्ति |
का | न्तं | व | पु | र्व्यो | म | च | रं | प्र | पे | दे |