सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तमिति॥ नृपते राज्ञो वन्यः कर्यवध्य इति श्रुतवान् शास्त्त्राज्ज्ञातवान्। कमार आपततन्मभिधावन्तं तं गजं निवर्तयिष्यन्न तु प्रहरिष्यन्। अत एव नात्यायतमनतिदीर्घँ यथा स्यात्। नञर्थस्य नशब्दस्य सुप्सुपेति समासः। कृष्टशार्ङ्गं ईषदाकृष्टचापः सन्विशिखेन बाणेन कुम्भे जघान। अत्र चाक्षुषः- लक्ष्मीकामो युद्धादन्यत्र करिवधं न कुर्यात्। इयं हि श्रीर्ये करिणः
इति। अत एव युद्धादन्यत्र
इति द्योतनार्थमेव वन्य
ग्रहणं कृतम् ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
त | मा | प | त | न्तं | नृ | प | ते | र | व | ध्यो |
व | न्यः | क | री | ति | श्रु | त | वा | न्कु | मा | रः |
नि | व | र्ति | यि | ष्य | न्वि | शि | खे | न | कु | म्भे |
ज | घा | न | ना | त्या | य | त | कृ | ष्ट | शा | र्ङ्गः |