कुशाग्रीयमतिः प्रोक्तः सूक्ष्मदर्शी च यः पुमान्
इति हलायुधः। मन्त्रकृतां मन्त्रस्रष्टॄणाम्। सुकर्मपापमन्त्र-
(अष्टाध्यायी ३.२.८९ ) इत्यादिना क्विप्। ऋषीणामग्रणीः श्रेष्ठस्ते तव गुरुः कुशल्यपि क्षेमवान्किम्? अपि
प्रश्ने। गर्हासमुञ्चयप्रश्नशङ्कासंभावनास्वपि
इत्यमरः। यतो यस्माद्गुरोः सकाशात् त्वयाऽशेषं ज्ञानम्। लोकेनोष्णरश्मेः सूर्याञ्चैतन्यं प्रबोध इव। आप्तं स्वीकृतम् ॥
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अ | प्य | ग्र | णी | र्म | न्त्र | कृ | ता | मृ | षी | णां |
कु | शा | ग्र | बु | द्धे | कु | श | ली | गु | रु | स्ते |
य | त | स्त्व | या | ज्ञा | न | म | शे | ष | मा | प्तं |
लो | के | न | चै | त | न्य | मि | वो | ष्ण | र | श्मेः |