ओजस्तेजसि धातूनामवष्टम्भप्रकाशयोः। ओजो बले च दीप्तौ च
इति विश्वः। रूपं वपुः। अथ रूपं नपुंसकम्। स्वभावाकृतिसौन्दर्यवपुषि श्लोकशब्दयोः।
इति विश्वः। तदेव पैतृकमेव । वीर्यं शौर्यं तदेव। नैसर्गिकं स्वाभाविकमुन्नतत्वं तदेव। तादृशमेवेत्यर्थः। कुमारो बालकः। प्रवर्तित उत्पादितो दीपः प्रदीपात् स्वोत्पादकदीपादिव। स्वात्स्वकीयात्। पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा
(अष्टाध्यायी ७.१.१६ ) इति स्माद्भावो वैकल्पिकः। कारणाज्जनकान्न बिभिदे भिन्नो नाभूत्। सर्वात्मनातादृश एवाभूदित्यर्थः ॥
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रू | पं | त | दो | ज | स्वि | त | दे | व | वी | र्यं |
त | दे | व | नै | स | र्गि | क | मु | न्न | त | त्वम् |
न | का | र | णा | त्स्वा | द्बि | भि | दे | कु | मा | रः |
प्र | व | र्ति | तो | दी | प | इ | व | प्र | दी | पात् |