सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
उपात्तेति॥ गुरुभ्यो विधिवद्यथाशास्त्त्रमुपात्तविद्यं लब्धविद्यम्। यौवनस्योद्भेदादाविर्भावाद्धेतोर्विशेषेण कान्तं सौम्यं तमजं प्रति साभिलाषापि श्रीः। धीरा स्थिरोन्नतचित्ता। स्थिरा चित्तोन्नतिर्या तु तद्धैर्यमिति संज्ञितम्
इति भूपालः। कन्या पितुरिव। गुरोरनुज्ञामाचकाङ्क्षेयेष। यौवराज्यार्होऽभूदित्यर्थः। अनुज्ञा
शब्दात्पितृपारतन्त्त्र्यमुपमासामर्थ्यात्पाणिग्रहणयोग्यता च ध्वन्यते ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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उ | पा | त्त | वि | द्यं | वि | धि | व | द्गु | रु | भ्य |
स्तं | यौ | व | नो | द्भे | द | वि | शे | ष | का | न्तम् |
श्रीः | सा | भि | ला | षा | पि | गु | रो | र | नु | ज्ञां |
धी | रे | व | क | न्या | पि | तु | रा | च | का | ङ्क्ष |