पादाः प्रत्यन्तपर्वताः
इत्यमरः (अमरकोशः २.३.७ ) । शृङ्गम्
इति क्वचित्पाठः। तं भासुरं भास्वरम्। भञ्जभासमिदो घुरच्
(अष्टाध्यायी ३.२.१६१ ) इति घुरच्। हेमराशिं समस्तं कृत्स्नमेव कौत्साय दिदेश ददौ। न तु चतुर्दशकोटिमात्रमित्येवकारार्थः ॥
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तं | भू | प | ति | र्भा | सु | र | हे | म | रा | शिं |
ल | ब्धं | कु | बे | रा | द | भि | या | स्य | मा | नात् |
दि | दे | श | कौ | त्सा | य | स | म | स्त | मे | व |
पा | दं | सु | मे | रो | रि | व | व | ज्र | भि | न्नम् |