मूल्ये पूजाविधआवर्धः
इति। शीलं स्वभावे सद्वृत्ते
इति चामरशाश्वतौ। यशसा कीर्त्या। प्रकाशत इति प्रकाशः। पचाद्यच्। अतिथिषु साधुरातिथएयः। पथ्यतिथिवसतिस्वपतेर्ढञ
(अष्टाध्यायी ४.४.१०४ ) इति ढञ्। स रघुः। हिरण्यस्य विकारो हिरण्मयम्। दाण्डिनायन-
(अष्टाध्यायी ६.४.१७४ ) आदिसूत्रेण निपातः। वीतहिरण्मयत्वादपगतसुवर्णपात्रत्वात्। यज्ञस्य सर्वस्वदक्षिणाकत्वादिति भावः। मृण्मये मृद्विकारे पात्रे। अर्घार्थमिदमर्घअयम्। पादार्घाभ्यां च
(अष्टाध्यायी ५.४.२५ ) इति यत्। पूजार्थं द्रव्यं निधआय श्रुतेन शास्त्त्रेण प्रकाशं प्रसिद्धम्। श्रूयत इति श्रुतं वेदशास्त्त्रम्।श्रुतं शास्त्त्रावधृतयोः
इत्यमरः (अमरकोशः २.७.३६ ) । अतिथिमभ्यागतं कौत्सम्। अतिथिर्ना गृहागते
इत्यमरः (अमरकोशः २.७.३६ ) । प्रत्युज्जगाम ॥
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स | मृ | ण्म | ये | वी | त | हि | र | ण्म | य | त्वा |
त्पा | त्रे | नि | धा | या | र्ध्य | म | न | र्घ | शी | लः |
श्रु | त | प्र | का | शं | य | श | सा | प्र | का | शः |
प्र | त्यु | ज्ज | गा | मा | ति | थि | मा | ति | थे | यः |