यावत्तावञ्च साकल्येऽवधौ मानेऽवधारणे
इति विश्वः। प्रयोजनान्तररहितोऽहमन्यतो वदान्यान्तराद्गुर्वर्थं गुरु-धनमाहर्तुमर्जयितुं यतिष्य उद्योक्ष्ये। ते तुभ्यं स्वस्ति शुभमस्तु। नमःस्वस्ति-
(अष्टाध्यायी २.३.१६ ) इत्यादिना चतुर्थी। तथा हि-चातकोऽपि। धरणीपतितं तोयं चातकानां रुजाकरम्
इतिहेतोरनन्यगतिकोऽपीत्यर्थः। निर्गलितोऽम्ब्वेव गर्भो यस्य तं शरद्धनं नार्दति न याचते। अर्द गतौ याचने च
इति धातुः। याचनार्थे रणेऽर्दनम्
इति यादवः ॥
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
त | द | न्य | त | स्ता | व | द | न | न्य | का | र्यो |
गु | र्व | र्थ | मा | ह | र्तु | म | हं | य | ति | ष्टे |
स्व | स्त्य | स्तु | ते | नि | र्ग | लि | ता | म्बु | ग | र्भं |
श | र | द्ध | नं | ना | र्द | ति | चा | त | को | ऽपि |