योनौ जलावतारे च मन्त्त्र्याद्यष्टादशस्वपि। पुण्यक्षेत्रे तथा पात्रे तीर्थं स्याद्दर्शनेष्वपि ॥
इति हलायुधः। शरीरमात्रेण तिष्ठन्। आरण्यका अरण्ये भवा मनुष्या मुनिप्रमुखाः। अरण्यान्मनुष्ये
(अष्टाध्यायी ४.२.१२९ ) इति वुञ्प्रत्ययः। तैरुपात्ता फलमेव प्रसूतिर्यस्य स स्तम्बेन काण्डेनावशिष्टः। प्रकृत्यादित्वात्तृतीया। नीवार इव। आभासि शोभसे ॥
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श | री | र | मा | त्रे | ण | न | रे | न्द्र | ति | ष्ठ |
न्ना | भा | सि | ती | र्थ | प्र | ति | पा | दि | त | र्द्धिः |
आ | र | ण्य | को | पा | त्त | फ | ल | प्र | सू | तिः |
स्त | म्बे | न | नी | वा | र | इ | वा | व | शि | ष्टः |