पूज्यः प्रतीक्ष्यः
इत्यमरः (अमरकोशः ३.१.५ ) । भक्तिरनुरागविशेषस्ते तव कुलोचिता कुलाभ्यस्ता। अभ्यस्तेऽप्युचितं न्याय्यम्
इति यादवः। हे महाभाग सार्वभौम! तया भक्त्या पूर्वानतिशेषेऽतिवर्तसे। किंतु सर्वत्र वार्तं चेत्तर्हि कथं खेदखिन्न इव दृश्यसेऽत आह-व्यतीतेति। अहं व्यतीतकालोऽतिक्रान्तकालः सन्नर्थिभावात्त्वामभ्युपेत इति मे मम विषादः ॥
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भ | क्तिः | प्र | ती | क्ष्ये | षु | कु | लो | चि | ता | ते |
पू | र्वा | न्म | हा | भा | ग | त | या | ति | शे | षे |
व्य | ती | त | का | ल | स्त्व | ह | म | भ्यु | पे | त |
स्त्वा | म | र्थि | भा | वा | दि | ति | मे | वि | षा | दः |