सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
सर्वत्रेति॥ हे राजन्! त्वं सर्वत्र नोऽस्माकं वार्तं स्वास्थ्यमवेहि जानीहि। वार्तं वल्गुन्यरोगे च
इत्यमरः (अमरकोशः १.८.३ ) । वार्तं पाटवमारोग्यं भव्यं स्वास्थ्यमनामयम्
इति यादवः। न चैतदाश्चर्यमित्याह-नाथ इति। त्वयि नाथ ईश्वरे सति प्रजानामशुभं दुःखं कुतः? तथा हि-अर्थान्तरं न्यस्यति सूर्य इत्यादिना। सूर्ये तपति प्रकाशमाने सति तमिस्रा तमस्ततिः। तमिस्रं तिमिरं रोगे तमिस्रा तु समस्ततौ । कृष्णपक्षे निशायां च
इति विश्वः। तमिस्रम्
इति पाठे तमिस्रं तिमिरम्। तमिस्रं तिमिरं तमः
इत्यमरः (अमरकोशः १.८.३ ) । लोकस्य जनस्य। लोकस्तु भुवने जने
इत्यमरः (अमरकोशः १.८.३ ) । दृष्टेरावरणाय कथं कल्पेत? दृष्टिमावरितुं नालमित्यर्थः। क्लृपेरलमर्थत्वात्तद्योगे नमःस्वस्ति-
(अष्टाध्यायी २.३.१६ ) इत्यादिना चतुर्थी। अलमिति पर्याप्त्यर्थग्रहणम्
इति भगवान्भाष्यकारः। कल्पेत। संपद्येत। न कल्पत इत्यर्थः। क्लृपि संपद्यमाने चतुर्थी
(वा.१४५९) इति वक्तव्यात् ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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स | र्व | त्र | नो | वा | र्त | म | वे | हि | रा | ज |
न्ना | थे | कु | त | स्त्व | य्य | शु | भं | प्र | जा | नाम् |
सू | र्ये | त | प | त्या | व | र | णा | य | दृ | ष्टेः |
क | ल्पे | त | लो | क | स्य | क | थं | त | मि | स्रा |
त | त | ज | ग | ग |