सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
इतीति॥ अर्घ्यपात्रेण मृष्मयेनानुमितो व्ययः सर्वस्वत्यागो यस्य तस्य रघोरित्युक्तप्रकारामुदारामौदार्ययुक्तामपि गां वाचम्। मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे
(५।११) इत्येवंरूपाम्। स्वर्गेषुपशुवाग्वज्रदिङ्गेत्रघृणिभूजले। लक्ष्यदृष्ट्या स्त्रियां पुंसि गौः
इत्यमरः। निशम्य श्रुत्वा वरतन्तुशिष्यः कौत्सः स्वार्थोपपत्तिं स्वकार्यसिद्धिं प्रति दुर्बलाशः सन् मृण्मयपात्रदर्शनाच्छिथिलमनोरथथः सन्। तं रघुमिति वक्ष्यमाणप्रकारेणावोचत् ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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इ | त्य | र्घ्य | पा | त्रा | नु | मि | त | व्य | य | स्य |
र | घो | रु | दा | रा | म | पि | गां | नि | श | म्य |
स्वा | र्थो | प | प | त्तिं | प्र | ति | दु | र्ब | ला | श |
स्त | मि | त्य | वो | च | द्व | र | त | न्तु | शि | ष्यः |