अर्हः प्रशंसायाम्
(अष्टाध्यायी ३.२.११३ ) इति शतृप्रत्ययः। तवाभिगमेनागमनमात्रेण मे मनो न तृप्तं न तुष्टम्। किंतु नियोगक्रिययाऽऽज्ञाकरणेनोत्सुकं सोत्कण्ठम्। इष्टार्थोद्युक्त उत्सुकः
इत्यमरः (अमरकोशः ३.१.९ ) । प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च
(अष्टाध्यायी २.३.४४ ) इति सप्तम्यर्थे तृतीया। शासितुर्गुरोराज्ञयाप्यात्मना स्वतो वा। प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्
(वा.१४६६) इति तृतीया। मां संभावयितुं वनात्प्राप्तोऽसि? गुर्वर्थं स्वार्थं वाऽऽगमनमित्यर्थः॥
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त | वा | र्ह | तो | ना | भि | ग | मे | न | तृ | प्तं |
म | नो | नि | यो | ग | क्रि | य | यो | त्सु | कं | मे |
अ | प्या | ज्ञ | या | शा | सि | तु | रा | त्म | ना | वा |
प्रा | प्तो | ऽसि | सं | भा | व | यि | तुं | व | ना | न्माम् |