सारो बले स्थिरांशे च न्याय्ये क्लीबं वरे त्रिषु
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.१७९ ) । स्वं स्वकीयं संचितं यश इव तस्मै रघवे निपत्य प्रणिपत्य ददुः। यशसः शुभ्रत्वादौपम्यम्। ताम्रपर्णीसंगमे मौक्तिकोत्पत्तिरिति प्रसिद्धम् ॥
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ता | म्र | प | र्णी | स | मे | त | स्य |
मु | क्ता | सा | रं | म | हो | द | धेः |
ते | नि | प | त्य | त | दु | स्त | स्मै |
य | शः | स्व | मि | व | सं | चि | तम् |