कर्तर्युपमाने
(अष्टाध्यायी ३.२.७९ ) इति, सुप्यजातौ-
(अष्टाध्यायी ३.२.७८ ) इति च णिनिः। तेन रघुणा समं युगपदेव द्वयं समाक्रान्तमधिष्ठितम्। किं तद्वयम्? पितुरागतं पित्र्यम्। पितुर्यत-
(अष्टाध्यायी ४.३.७९ ) इति यत्प्रत्ययः। सिंहासनम्। अखिलमरीणां मण्डलं राष्ट्रं च ॥
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स | म | मे | व | स | मा | क्रा | न्तं |
द्व | यं | द्वि | र | द | गा | मि | ना |
ते | न | सिं | हा | स | नं | पि | त्र्य |
म | खि | लं | चा | रि | म | ण्ड | लम् |