जिदृक्षिविश्री-
(अष्टाध्यायी ३.२.१४७ ) इत्यादिनेनिप्रत्ययः। स रघुरेवम्। पुरो भवान् पौरस्त्यान्प्राच्यान्। दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक्
(अष्टाध्यायी ४.२.९८ ) इति त्यक्प्रत्ययः। तांस्तान्, सर्वानित्यर्थः। वीप्सायां द्विरुक्तिः। जनपदान्देशानाक्रामन्। तालीवनैः श्यामं महोदधेरुपकण्ठमन्तिकं प्राप॥
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
---|---|---|---|---|---|---|---|
पौ | र | स्त्या | ने | व | मा | क्रा | मं |
स्तां | स्ता | ञ्ज | न | प | दा | ञ्ज | यी |
प्रा | प | ता | ली | व | न | श्या | म |
मु | प | क | ण्ठं | म | हो | द | धेः |