सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
त्याजितैरिति॥ फलं फले धने बीजे निष्पत्तौ भोगलाभयोः
इति केशवः। फलं लाभम्। वृक्षपक्षे, -प्रसवं च। त्याजितैः। त्यजेर्ण्यन्ताद्द्वकर्मकादप्रधाने कर्मणि क्तः। उत्खातैः स्वपदाञ्च्यावितैः। अन्यत्र, -उत्पाटितैः। बहुधा भग्नै रणे जितैः। अन्यत्र, -छिन्नेः। नृपैः। पादपैर्दन्तिनो गजस्येव तस्य रघोर्मार्ग उल्बणः प्रकाश आसीत्। प्रकाशं प्रकटं स्पष्टमुल्बणं विशदं स्फुटम्
इति यादवः॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० |
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त्या | जि | तैः | फ | ल | मु | त्खा | तै |
र्भ | ग्नै | श | अ | च | ब | हु | धा | नृ | पैः |
त | स्या | सी | दु | ल्ब | णो | मा | र्गः |
पा | द | पै | रि | व | द | न्ति | नः |