सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तस्मा इति॥ वाजिनामश्वानां नीराजनाविधौ नीराजनाख्ये शान्तिकर्मणि सम्यग्विधिवद्धुतो होमसमिद्धो वह्निः। प्रगता दक्षिणं प्रदक्षिणम्। तिष्ठद्गुप्रभृतित्वादव्ययीभावः। प्रदक्षिणं याऽर्चिर्ज्वाला तस्या व्याजेन हस्तेनेव तस्मै जयं ददौ। उक्तं महायात्रायाम्-इद्धः प्रदक्षिणगतो हुतभुङ् नृपस्य धात्रीं समुद्ररशनां वशगा करोति
इति। वाजि
ग्रहणं गजादीनामप्युपलक्षणम्, तेषामपि नीराजनाविधानात् ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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त | स्मै | रु | म्य | ग्घु | तो | वि | ह्नि |
र्वा | जि | नी | रा | ज | ना | वि | धौ |
प्र | द | क्षि | णा | र्चि | र्व्या | जे | न |
ह | स्ते | ने | व | ज | यं | द | दौ |