सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तथापीति॥ तथापि वज्रघातेऽपि शस्त्त्राणामायुधानां व्यवहारेण व्यापारेण निष्ठुरे क्रूरे विपक्षभावे शात्रवे चिरं तस्थुषः स्थितवतोऽस्य रघोर्वीर्यातिशयेन। वृत्रं हतवानिति वृत्रहा। ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप्
। (अष्टाध्यायी ३.२.८७ ) तुतोष। स्वयं वीर एव वीरं जानातीति भावः। कथं शत्रोः संतोषोऽत आह-गुणैः सर्वत्र शत्रुमित्रोदासीनेषु पदमङ्ग्रिर्निधीयते। गुणैः सर्वत्र संक्रम्यत इत्यर्थः। गुणाः शत्रूनप्यावर्जयन्तीति भावः ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ |
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त | था | पि | श | स्त्त्र | व्य | व | हा | र | नि | ष्ठु | रे |
वि | प | क्ष | भा | वे | चि | र | म | स्य | त | स्थु | षः |
तु | तो | ष | वी | र्या | ति | श | ये | न | वृ | त्र | घ |
हा | प | दं | हि | स | र्व | त्र | गु | णै | र्नि | धी | य | ते |
ज | त | ज | र |