सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
रघुरिति॥ रघुस्तेन वज्रेण भृशमत्यर्थं वक्षसि ताडितो हतः सन् । सैनिकानामश्रुभिः सह भूमौ पपात। तस्मिन्पतिते ते रुरुदुरित्यर्थः। निमेषमात्राद्व्यथां दुःखमवधूय तिरस्कृत्य सैनिकानां हर्षेण ये निस्वनाः क्ष्वेडास्तैः सहोत्थितश्च। तस्मिन्नुत्थिते हर्षात्सिंहनादांश्चक्रुरित्यर्थः॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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र | घु | र्भृ | शं | व | क्ष | सि | ते | न | ता | डि | तः |
प | पा | त | भू | मौ | स | ह | सै | नि | का | श्रु | भिः |
नि | मे | ष | मा | त्रा | द | व | धू | य | च | व्य | थां |
स | हो | त्थि | तः | सै | नि | क | ह | र्ष | नि | स्व | नैः |
ज | त | ज | र |