सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अतीति॥ वासवोऽतिप्रबन्धेनातिसातत्येन प्रहिताभिः प्रयुक्ताभिरस्त्त्रवृष्टिभिर्दुष्प्रसहस्य दुःखेन प्रसह्यत इति दुष्प्रसहं तस्य। दुःखेनाप्यसह्यस्येत्यर्थः। तेजसः प्रतापस्याश्रयं तं रघुम्। अम्बुदोऽद्भिः स्ततश्च्युतं निर्गतं वह्निमिव निर्वापयितुं न शशाक। रघोरपि लोकपालात्मकस्येन्द्रांशसंभवत्वदिति भावः ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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अ | ति | प्र | ब | न्ध | प्र | हि | ता | स्त्त्र | वृ | ष्टि | भि |
स्त | मा | श्र | यं | दु | ष्प्र | स | ह | स्य | ते | ज | सः |
श | शा | क | नि | र्वा | प | यि | तुं | न | वा | स | वः |
स्व | त | श्च्यु | तं | व | ह्नि | मि | वा | द्भि | र | म्बु | दः |
ज | त | ज | र |