सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तयोरिति॥ जयैषिणोरन्योन्यजयाकाङ्क्षिणोस्तयोरिन्द्ररध्वोः। गरुत्मन्तः पक्षवन्तः। गरुत्पक्षच्छदाः पत्रम्
इत्यमरः (अमरकोशः २.५.३८ ) । आशीविषाः। आशिषि दंष्ट्रायां विषं येषां त आशीविषाः सर्पाः। पृषोदरादित्यात्साधुः। स्त्त्री त्वाशीर्हिताशंसाहिदंष्ट्रुयोः
इत्यमरः (अमरकोशः २.५.३८ ) । त इव भीमदर्शनाः सपक्षाः सर्पा इव। द्रष्टॄणां भयावहा इत्यर्थः। तैरधोमुखैरूर्ध्वमुखैश्च। धन्विनोरुपर्यधोदेशावस्थितत्वादिति भावः । पत्रिभिर्बाणैरुपान्तस्थितास्तटस्थाः सिद्धा देवा इन्द्रस्य सैनिकाश्च रघोर्यस्मिंस्तथोक्तं तुमुलं संकुलं संकुलं युद्धं बभूव ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त | यो | रु | पा | न्त | स्थि | त | सि | द्ध | सै | नि | कं |
ग | रु | त्म | दा | शी | वि | ष | भी | म | द | र्श | नैः |
ब | भू | व | यु | द्धं | तु | मु | लं | ज | यै | षि | णो |
र | धो | मु | खै | रू | र्ध्व | मु | खै | श्च | प | त्रि | भिः |
ज | त | ज | र |