सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तत इति॥ ततो रघुर्हरिचन्दनाङ्किते प्रकोष्ठे मणिबन्धे प्रमथ्यमानार्णवधीरनादिनीं प्रमथ्यमानार्णव इव धीरं गम्भीरं नदतीति तां तथोक्ताम्। वेवेष्टि व्याप्नोतीति विट् व्यापकमोजो यस्य स तस्य बिडौजस इन्द्रस्य। पृषोदरादित्यात्साधुः। शरासनज्यां धनुर्मौर्वीम्। शशाङ्कस्यार्धः खण्ड इव मुकं फलं यस्य तेन पत्रिणाऽलुनादच्छिनत् ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त | तः | प्र | को | ष्ठे | ह | रि | च | न्द | ना | ङ्कि | ते |
प्र | म | थ्य | मा | ना | र्ण | व | धी | र | ना | दि | नीम् |
र | घुः | श | शा | ङ्का | र्ध | मु | खे | न | प | त्रि | णा |
श | रा | स | न | ज्या | म | लु | ना | द्बि | डौ | ज | सः |
ज | त | ज | र |