सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
जहारेति॥ अन्येन मयूरपत्रिणा मयूरपत्रवता शरेण शक्रस्येन्द्रस्य महाशनिध्वजं महान्तमशनिरूपं ध्वजं जहार चिच्छेद च। स शकः। सुरश्रियः प्रसह्य बलात्कृत्य केशानां व्यपरोपणादवतारणाच्छेदनादिव। तस्मै रघवे भृशमत्यर्थं चुकोप। तं हन्तुमियेषेत्यर्थः। क्रुधद्रुह-
(अष्टाध्यायी १.४.३७ ) इत्यादिना संप्रदानाञ्चतुर्थी ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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ज | हा | र | चा | न्ये | न | म | यू | र | प | त्रि | णा |
श | रे | ण | श | क्र | स्य | म | हा | श | नि | ध्व | जम् |
चु | को | प | त | स्मै | स | भृ | शं | सु | र | श्रि | यः |
प्र | स | ह्य | के | श | व्य | प | रो | प | णा | दि | व |
ज | त | ज | र |