सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
हरेरिति॥ कुमारस्य स्कन्दस्य विक्रम इव विक्रमो यस्य स तथोक्तः। सप्तम्युपमान-
इत्यादिना समासः। कुमारोऽपि रघुरपि सुरद्विपस्यैरावतस्यास्फालनेन कर्कशा अङ्गुलयो यस्य सः। तस्मिन्। शच्याः पत्रविशेषकैरङ्किते शचीपत्रविशेषकाङ्किते हरेरिन्द्रस्य भुजे स्वनामचिह्नं स्वनामाङ्कितं सायकं निचखान निखातवान्। निष्कण्टकराज्यमाप्तस्यायं महानभिभव इति भावः ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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ह | रेः | कु | मा | रो | ऽपि | कु | मा | र | वि | क्र | मः |
सु | र | द्वि | पा | स्फा | ल | न | क | र्क | शा | ङ्गु | लौ |
भु | जे | श | ची | प | त्र | वि | शे | ष | का | ङ्कि | ते |
स्व | ना | म | चि | ह्नं | नि | च | खा | न | सा | य | कम् |
ज | त | ज | र |