सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
स इति॥ स रघुरुन्मुखः सन् मघवन्तमिन्द्रमेवमुक्त्वा शरासनं चापं सशरं करिष्यमाणः। आलीढेनालीढाख्येन स्थानभेदेन विशेषशोभिनाऽतिशयशोभिना वपुःप्रकर्षेण देहौन्नत्येन विडम्बितेश्वरोऽनुसृतपिनाकी सन्। अतिष्ठत्। आलीढलक्षणमाह यादवः-स्थानानि धन्विनां पञ्च तत्र वैशाखमस्त्त्रियाम्। त्रिवितस्त्यन्तरौ पादौ मण्डलं तोरणाकृति॥ अन्वर्थं स्यात्समपदमालीढं तु ततोऽग्रतः। दक्षिणे वाममाकुञ्च्य प्रत्यालीढविपर्ययः॥
इति ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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स | ए | व | मु | क्त्वा | म | घ | व | न्त | मु | न्मु | खः |
क | रि | ष्य | मा | णः | स | श | रं | श | रा | स | नम् |
अ | ति | ष्ठ | दा | ली | ढ | वि | शे | ष | शो | भि | ना |
व | पुः | प्र | क | र्षे | ण | वि | ड | म्बि | ते | श्व | रः |
ज | त | ज | र |