सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
रघोरिति॥ रघोरवष्टम्भमयेन स्तम्भरूपेण। अवष्टम्भः सुवर्णे च स्तम्भप्रारम्भयोरपि
इति विश्वः। पत्रिणा बाणेन हृदि हृदये क्षतो विद्धः। अत एवामर्षणोऽसहनः। क्रुद्ध इत्यर्थः। गोत्रभिदिन्द्रोऽपि । संभावनीये चौरेऽपि गोत्रः क्षोणीधरे मतः
इति विश्वः। नवाम्बुदानामनीकस्य वृन्दस्य मुहूर्तं क्षणमात्रं लाञ्छने चिह्रभूते धनुषि। दिव्ये धनुषीत्यर्थः। अमोघमवन्ध्यं सायकं बाणं समधत्त संहितवान् ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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र | घो | र | व | ष्ट | म्भ | म | ये | न | प | त्रि | णा |
हृ | दि | क्ष | तो | गो | त्र | भि | द | प्य | म | र्ष | णः |
न | वा | म्बु | दा | नी | क | मु | हू | र्त | ला | ञ्छ | ने |
ध | नु | ष्य | मो | घं | स | म | ध | त्त | सा | य | कम् |
ज | त | ज | र |