सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अत इति। अतोऽहमेव शतक्रतुरतस्त्वदीयस्य पितुरयं शततमोऽश्वः कपिलानुकारिणा कपिलमुनितुल्येन मयाऽपहारितोऽपहृतः। अपहारित इति स्वार्थे णिच्। तवात्राश्वे प्रयत्नेनालम्;प्रयत्नो माकारीत्यर्थः। निषेध्यस्य निषेधं प्रति करणत्वात्तृतीया। सगरस्य राज्ञः संततेः संतानस्य पदव्यां पदं मा निधा न निधेहि। निपूर्वाद्धाधातोर्लुङ्। न माङ्योगे
(अष्टाध्यायी ६.४.७४ ) इत्यडागमप्रतिषेधः। महदास्कन्दनं ते विनाशमूलं भवेदिति भावः ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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अ | तो | ऽय | म | श्वः | क | पि | ला | नु | का | रि | णा |
पि | तु | स्त्व | दी | य | स्य | म | या | प | हा | रि | तः |
अ | लं | प्र | य | त्ने | न | त | वा | त्र | मा | नि | धाः |
प | दं | प | द | व्यां | स | ग | र | स्य | सं | त | तेः |
ज | त | ज | र |