सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
हरिरिति॥ पुरुषेषूत्तम इति सप्तमीसमासः। न निर्धारणे
(अष्टाध्यायी २.२.५० ) इति षष्ठीसमासनिषेधात्। कर्मधारये तु सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः
इत्युत्तमपुरुष इति स्यात्। यथा ह्ररिर्विष्णुरेक एव पुरुषोत्तमः स्मृतः। यथा च त्र्यम्बकः शिव एव महेश्वरः स्मृतः। नापरोऽपरः पुमान्न। तथा मां मुनयः शतक्रतुं विदुर्विदन्ति। विदो लटो वा
(अष्टाध्यायी ३.४.८३ ) इति झेर्जुसादेशः। नोऽस्माकम्। हरिहरयोर्मम चेत्यर्थः। एष त्रितयोऽपि शब्दो द्वितीयगामी न हि। द्वितीयाप्रकरणे नमिगम्यादीनामुपसंख्यानात्समासः ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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ह | रि | र्य | थै | कः | पु | रु | षो | त्त | मः | स्मृ | तो |
म | हे | श्व | र | स्त्त्र्य | म्ब | क | ए | व | ना | प | रः |
त | था | वि | दु | र्मां | मु | न | यः | श | त | क्र | तुं |
द्वि | ती | य | गा | मी | न | हि | श | ब्द | ए | ष | नः |
ज | त | ज | र |