सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
यदिति॥ हे राजन्यकुमार क्षत्रियकुमार! मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.१ ) । यद्वाक्यमात्थ ब्रवीषि। ब्रुवः पञ्चानाम्-
(अष्टाध्यायी ३.४.८४ ) इत्यादिनाहादेशः। तत्तथा सत्यम्;किंतु यशोधनैरस्मादृशैः परतः शत्रुतो यशो रक्ष्यम्। ततः किमत आह-भवद्गुरुस्त्वात्पिता जगत्प्रकाशं लोकप्रसिद्धमशेषं सर्वं मम तद्यश इत्यया यागेन लङ्घयितुं तिरस्कर्तुमुद्यत उद्युक्तः ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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य | दा | त्थ | रा | ज | न्य | कु | मा | र | त | त्त | था |
य | श | स्तु | र | क्ष्यं | प | र | तो | य | शो | ध | नैः |
ज | ग | त्प्र | का | शं | त | द | शे | ष | मि | ज्य | या |
भ | व | द्गु | रु | र्ल | ङ्घ | यि | तुं | म | मो | द्य | तः |
ज | त | ज | र |