सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
त्रिलोकेति॥ त्रयाणां लोकानां नाथस्त्त्रिलोकनाथः। तद्धितार्थ-
(अष्टाध्यायी २.१.५१ ) इत्यादिनोत्तरपदसमासः। तेन त्रैलोक्यनियामकेन दिव्यचक्षुषाऽःतीन्द्रियार्थदर्शिना त्वया मखद्विषः क्रतुविघातकाः सदा नियम्या ननु शिक्ष्याखलु। स त्वं धर्मचारिणां कर्मसु क्रतुषु स्वयमन्तरायो विघ्नो भवसि चेत्। विधिरनुष्ठानं च्युतः क्षतः। लोके सत्कर्मकथैवास्तमियादित्यर्थः॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त्रि | लो | क | ना | थे | न | स | दा | म | ख | द्वि | ष |
स्त्व | या | नि | य | म्या | न | नु | दि | व्य | च | क्षु | षा |
स | चे | त्स्व | यं | क | र्म | सु | ध | र्म | चा | रि | णां |
त्व | म | न्त | रा | यो | भ | व | सि | च्यु | तो | वि | धिः |
ज | त | ज | र |