सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
शतैरिति॥ रघुस्तमश्वहर्तारमनिमेषवृत्तिभिर्निमेषव्यापारशून्यैरक्ष्णां शतैर्हरिभिर्हरिद्वर्णैः। हरिर्वाच्यवदाख्यातो हरित्कपिलवर्णयोः
इति विश्वः। वाजिभिरश्वैश्च हरिमिन्द्रं विदित्वा। हरिर्वातार्कचन्द्रेन्द्रयमोपेन्द्रमरीचिषु
इति विश्वः। एनमिन्द्रं गगनस्पृशा व्योमव्यापिना धीरेण गभीरेण स्वरेण ध्वनिनैव निवर्तयन्निव। अवोचत् ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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श | तै | स्त | म | क्ष्णा | म | नि | मे | ष | वृ | त्ति | भि |
र्ह | रिं | वि | दि | त्वा | ह | रि | भि | श्च | वा | जि | भिः |
अ | वो | च | दे | नं | ग | ग | न | स्पृ | शा | र | घुः |
स्व | रे | ण | धी | रे | ण | नि | व | र्त | य | न्नि | व |
ज | त | ज | र |