सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
दिवमिति॥ हि यस्माद्दिगन्तविश्रान्तरथश्चक्रवर्ती तस्याः सुतस्तत्सुतः। मरुत्वानिन्द्रः। इन्द्रो मरुत्वान्मघवा
इत्यमरः (अमरकोशः १.१.५१ ) । दिवं स्वर्गमिव। भुवं भोक्ष्यते। भुजोऽनवने
(अष्टाध्यायी १.३.३६ ) इत्यात्मनेपदम्। अतः प्रथमं सा सुदक्षिणा तथा मृद्रूपे। अभिलष्यत इत्यभिलाषो भोग्यवस्तु। कर्मणि घञ्प्रत्ययः। रस्यन्ते स्वाद्यन्तविधे भूविकारे इति रसा भोग्यार्थाः। अन्ये च ते रसाश्च तान्विलङ्घ्य विहाय मनो बबन्ध। विदधावित्यर्थः। दोहदहेतुकस्य मृद्भक्षणस्य पुत्रभूभोगसूचनार्थत्वमुत्प्रेक्षते ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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दि | वं | म | रु | त्वा | नि | व | भो | क्ष्य | ते | भु | वं |
दि | ग | वि | श्रा | न्त | र | थो | हि | त | त्सु | तः |
अ | तो | ऽभि | ला | षे | प्र | थ | मं | त | था | वि | धे |
म | नो | ब | व | न्धा | न्य | र | सा | न्वि | ल | ङ्घ्य | सा |
ज | त | ज | र |