सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तदिति॥ क्षितीश्वरो रहसि मृत्सुरभि मृदा सुगन्धि तस्या आननं तदाननं सुदक्षिणामुखमुपाघ्राय तृप्तिं नाययौ। कः कमिव? शुचिव्यपाये प्रीष्मावसाने। शुचि शुद्धेऽनुपहते शृङ्गाराषाढयोः सिते। ग्रीष्मे हुतवहेऽपि स्यादुपधाशुद्धमन्त्त्रिणी॥
इति विश्वः। पयोमुचां मेघानां पृषतैर्बिन्दुभिः। पृषन्ति बिन्दुपृषताः
इत्यमरः (अमरकोशः १.१०.६ ) । सिक्तमुक्षितं वनराज्याः पल्वलमुपाघ्राय करी गज इव । अत्र करिवनराजिपल्वलानां कान्तकामिनीवदनसमाधिरनुसंधेयः। गर्भिणीनां मृद्भक्षणं लोकप्रसिद्धमेव। एतेन दोहदाख्यं गर्भलक्षणमुच्यते ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त | दा | न | नं | मृ | त्सु | र | भि | क्षि | ती | श्व | रो |
र | ह | स्यु | पा | घ्रा | य | न | तृ | प्ति | मा | य | यौ |
क | री | व | सि | क्तं | पृ | ष | तैः | प | यो | मु | चां |
शु | चि | व्य | पा | ये | व | न | रा | जि | प | ल्व | लम् |
ज | त | ज | र |