सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तत इति॥ ततः परमेकोनशतक्रतुप्राप्त्यनन्तरं यज्वना विधिनेष्टवता तेन दिलीपेन पुनः पुनरपि मखाय मखं कर्तुम्। क्रियार्थोपपदस्य-
(अष्टाध्यायी २.३.१४ ) इत्यादिना चतुर्थी। उत्सृष्टं मुक्तमनर्गलमप्रतिबन्धम्। अव्याहतस्वैरगतिमित्यर्थः। अपर्यावर्तयन्तोऽश्वमनुचरन्ति
इत्यापस्तम्बस्मरणात्। तुरंगं धनुर्भृतां रक्षिणां रक्षकाणामग्रत एव शक्रो गूढविग्रहः सन्। जहार किल। किल
इत्यैतिह्ये ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त | तः | प | रं | ते | न | म | खा | य | य | ज्व | ना |
तु | रं | ग | मु | त्सृ | ष्ट | म | न | र्ग | लं | पु | नः |
ध | नु | र्भृ | ता | म | ग्र | त | ए | व | र | क्षि | णां |
ज | हा | र | श | क्रः | कि | ल | गू | ढ | वि | ग्र | हः |
ज | त | ज | र |