सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
विभावसुरिति॥ सारथिना सहायभूतेन। एतद्विशेषणमुत्तरवाक्येष्वप्यनुषञ्जनीयम्। वायुना वाभावसुर्वह्रिरिव। सूर्यवर्नी विभावसू
इत्यमरः। घनव्यपायेन शरत्समयेन सारथिना गभस्तिमान् सूर्य इव। कटो गण्डः। गण्डः कटो मदोदानम्
इत्यमरः। तस्य प्रभेदः स्फुटनम्। मदोदय इत्यर्थः। तेन करीव। पार्थिवो दिलीपः। तेन रघुणाऽतितरामत्यन्तं सुदुःसहः सुष्ठ्वसह्यो बभूव ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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वि | भा | व | सुः | सा | र | थि | ने | व | वा | यु | ना |
घ | न | व्य | पा | ये | न | ग | भ | स्ति | मा | नि | व |
ब | भू | व | ते | ना | ति | त | रां | सु | दुः | स | हः |
क | ट | प्र | भे | दे | न | क | री | व | पा | र्थि | वः |
ज | त | ज | र |