सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तत इति॥ तत आत्मना चिरं धृतां नितान्तगुर्वीम्। वोतो गुणवचनात्
(अष्टाध्यायी ४.१.४४ ) इति ङीष्। प्रजानां धुरं पालनप्रयासं लघयिष्यता लघुं करिष्यता। तत्करोति तदाचष्टे
(ग.२०४) इति लघुशब्दाण्णिच्। ततो लृटः सद्वा
(अष्टाध्यायी ३.३.१८ ) इति शतृप्रत्ययः। नृपेण दिलीपेन। असौ रघुर्निसर्गेण स्वभावेन संस्कारेण शास्त्त्राभ्यासजनितवासनया च विनीतो नम्र इति हेतोः। युवराज इति शब्दं भजतीति तथोक्तः। भजो ण्विः
(अष्टाध्यायी ३.२.६२ ) इति ण्विप्रत्ययः। चक्रे कृतः। द्विविधो विनयः स्वाभाविकः कृत्रिमश्च
इति कौटिल्यः। तदुभयसंपन्नत्वात्पुत्रं युवराजं चकारेत्यर्थः। अत्र कामन्दकः-विनीयोपग्रहान्भूत्यै कुर्वीत नृपतिः सुतान्। अविनीतकुमारं हि कुलमाशु विशीर्यते ॥ विनीतमौरसं पुत्रं यौवराज्येऽभिषेचयेत्॥
इति ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त | तः | प्र | जा | नां | चि | र | मा | त्म | ना | धृ | तां |
नि | ता | न्त | गु | र्वीं | ल | घ | यि | ष्य | ता | धु | रम् |
नि | स | र्ग | सं | स्का | र | वि | नी | त | इ | त्य | सौ |
नृ | पे | ण | च | क्रे | यु | व | रा | ज | श | ब्द | भाक् |
ज | त | ज | र |