सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अथेति॥ गौर्नादित्ये बलीवर्दे क्रतुभेदर्षिभेदयोः। स्त्त्री तु स्याद्दिशि भारत्यां भूमौ च सुरभावपि॥ पुंस्त्त्रियोः स्वर्गवज्राम्बुरश्मिदृग्बाणलोमसु॥
इति केशवः। गावो लोमानि केशा दीयन्ते खण्ड्यन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या गोदानं नाम ब्राह्मणादीनां षोडशादिषु वर्षेषु कर्तव्यं केशान्ताख्यं कर्मोच्यते। तदुक्तं मनुना(२।६५)-केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते। राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य द्व्यधिके ततः॥
इति। अथ गुरुः पिता। गुरू गीष्पतिपित्राद्यौ
इत्यमरः। अस्य गोदानविधेरनन्तरं विवाहदीक्षां निरवर्तयत्। कृतवानित्यर्थः। अथ नरेन्द्रकन्यास्तं रघुम्। दक्षस्य सुता रोहिण्यादयस्तमोनुदं चन्द्रमिव। तमोनुदोऽग्निचन्द्रार्काः
इति विश्वः। सत्पतिमवाप्त्याबभुः। रघुरपि तमोनुत्। अत्र मनुः(३।२)-वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम्। अविप्लुतब्रह्मचर्ये गृहस्थाश्रममाविशेत्॥
इति॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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अ | था | स्य | गो | दा | न | वि | धे | र | न | न्त | रं |
वि | वा | ह | दी | क्षां | नि | र | व | र्त | य | द्गु | रुः |
न | रे | न्द्र | क | न्या | स्त | म | वा | प्य | स | त्प | तिं |
त | मो | नु | दं | द | क्ष | सु | ता | इ | वा | ब | भुः |
ज | त | ज | र |