सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
महोक्षतामिति॥ रघुः क्रमाद्यौवनेन भिन्नशैशवो निरस्तशिशुभावः सन्। महानुक्षा महोक्षो महर्षभः। अचतुर-
(अष्टाध्यायी ५.४.७७ ) आदिसूत्रेण निपातनादकारान्तत्वम्, तस्य भावस्तत्ता। तां स्पृशन्गच्छन् वत्सतरो दम्य इव।दम्यवत्सतरौ समौ
इत्यमरः (अमरकोशः २.९.६३ ) । द्विपेन्द्रभावं महागजत्वं श्रयन्व्रजन् कलभः करिपोत इव। गाम्भीर्येणाचापलेन मनोहरं वपुः पुपोष॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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म | हो | क्ष | तां | व | त्स | त | रः | स्पृ | श | न्नि | व |
द्वि | पे | न्द्र | भा | वं | क | ल | भः | श्र | य | न्नि | व |
र | घुः | क्र | मा | द्यौ | व | न | भि | न्न | शै | श | वः |
पु | पो | प | गा | म्भी | र्य | म | नो | ह | रं | व | पुः |
ज | त | ज | र |