सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
त्वचमिति॥ स रघुः। कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः। वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमादिकानि च॥
(२।४१) इति मनुस्मरणान्मेध्यां शुद्धां रौरवीं रुरुसंबन्धिनीम्। रुरुर्महाकृष्णसारः
इति यादवः। त्वचं चर्म परिधाय वसित्वा मन्त्त्रवत् समन्त्त्रकमस्त्त्रमाग्नेयादिकं पितुरेवोपाध्यायादशिक्षताऽभ्यस्तवान्। आख्यातोपयोगे
(पा.१४२९) इत्यपादानसंज्ञा। पितुरेवेत्यवधारणमुपपादयति-नेति॥ तद्गुरुरेकोऽद्वितीयः पार्थिवः केवलं पृथिवीश्वर एव नाभूत्, किंतु क्षितौ स दिलीप एको धनुर्धरोऽप्यभूत् ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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त्व | चं | स | मे | ध्यां | प | रि | धा | य | रौ | र | वी |
म | शि | क्ष | ता | स्त्त्रं | पि | तु | रे | व | म | न्त्र | वत् |
न | के | व | लं | त | द्गु | रु | रे | क | पा | र्थि | वः |
क्षि | ता | व | भू | दे | क | ध | नु | र्ध | रो | ऽपि | सः |
ज | त | ज | र |