सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
श्रुतस्येति॥ अर्थविच्छब्दार्थज्ञः पार्थिवः पृथिवीश्वरो दिलीपः। अयमर्भको बालकः श्रुतस्य शास्त्त्रस्यान्तं पारं यायात्। तथा युधि परेषां शत्रूणामन्तं पारं च यायात्। यातुं शक्नुयादित्यर्थः। शकि लिङ् च
(अष्टाध्यायी ३.३.१७२ ) इति शक्यार्थे लिंङ्। इति होतोर्धातोः अधिवधिलधि गत्यर्थाः
इति लधिधातोर्गमनाख्यमर्थमर्थवित्त्वादवेक्ष्यालोच्च। आत्मसंभवं पुत्रं नाम्ना रघुं चकार। लङ्घिवं ह्योर्नलोपश्च
(वा.४७९८) इत्यप्रत्यये बलमूललघ्वलमङ्गुलीनां वा लो रत्वमापद्यते
(उ.सू.२९) इति वैकल्पिके रेफादेशे रघुरिति रूपं सिद्धम्। अत्र शङ्खः-आशौचे तु व्यतिक्रान्ते नामकर्म विधीयते
इति ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
---|
श्रु | त | स्य | या | या | द | य | म | न्त | म | र्भ | क |
स्त | था | प | रे | षां | यु | धि | चे | ति | पा | र्थि | वः |
अ | वे | क्ष्य | धा | तो | र्ग | म | ना | र्थ | म | र्थ | वि |
ञ्च | का | र | ना | म्ना | र | घु | मा | त्म | सं | भ | वम् |
ज | त | ज | र |