सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
नेति॥ रक्षितुः सम्यक्पालनशीलस्य तस्य दिलीपस्य। अत एव चौराद्यभावात्। संयतो बद्धो न बभूव नास्ति स्म। किं तेनात आह-विसर्जयेदिति॥ सुतजन्म हर्षितस्तोषितः सन्। यं बद्धं विसर्जयेद्विमोचयेत्। किंतु स राजा तदा पितॄणामृणाभिधानाद्बान्धनात् केवलमेकं यथा तथा। स्वयमेव। एक एवेत्यर्थः। केवलः कृत्स्न एकश्च केवलश्चावधीरितः
इति शाश्वतः। मुमुचे। कर्मकर्तरि लिट्। स्वयमेव मुक्त इत्यर्थः। अस्मिन्नर्थे-एष वा अनृणो यः पुत्री
इति श्रुतिः प्रमाणम् ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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न | सं | य | त | स्त | स्य | ब | भू | व | र | क्षि | तु |
र्वि | स | र्ज | ये | द्यं | सु | त | ज | न्म | ह | र्षि | तः |
ऋ | णा | भि | धा | ना | त्स्व | य | मे | व | के | व | लं |
त | दा | पि | तॄ | णां | मु | मु | चे | स | ब | न्ध | नात् |
ज | त | ज | र |