सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
सुखश्रवा इति॥ सुखः सुखकरः श्रवः श्रवणं येषां ते सुखश्रवाः। श्रुतिसुखा इत्यर्थः। मङ्गलतूर्यनिस्वना मङ्गलवाद्यध्वनयो वारयोषितां वेश्यानाम्। वारस्त्त्री गणिका वेश्या रूपाजीवा
इत्यमरः। प्रमोदनृत्यैर्हर्षनर्तनैः सह मागधीपतेर्दिलीपस्य सद्मनि केवलं गृह एव न व्यजृम्भन्त, किंतु द्यौरोको येषां ते दिवौकसो देवाः। पृषोदरादित्वात्साधुः, तेषां पथ्याऽऽकाशेऽपि व्यजृम्भन्त। तस्य देवांशत्वाद्देवोपकारित्वाञ्च देवदुन्दुभयोऽपि नेदुरिति भावः॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
---|
सु | ख | श्र | वा | म | ङ्ग | ल | तू | र्य | नि | स्व | नाः |
प्र | मो | द | नृ | त्यैः | स | ह | वा | र | यो | षि | ताम् |
न | के | व | लं | स | द्म | नि | मा | ग | धी | प | तेः |
प | थि | व्य | जृ | म्भ | न्त | दि | वौ | क | सा | म | पि |
ज | त | ज | र |