सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
निवातेति॥ निवातो निर्वातप्रदेशः। निवातावाश्रयावातौ
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.९१ ) । तत्र यत्पद्मं तद्वत्स्तिमितेन निष्पन्देन चक्षुषा नेत्रेण कान्तं सुन्दरं सुताननं पुत्रमुखं पिबतस्तृष्णया पश्यतो नृपस्य गुरुरुत्कटः प्रहर्षः कर्ता इन्दुदर्शनाद्गुरुर्महोदधेः पूरो जलौघ इव आत्माने शरीरे न प्रबभूव स्थातुं न शशाक। अन्तर्न माति स्मेति यावत्। न ह्यल्पाधारेऽधिकं मीयत इति भावः। यद्वा, -हर्ष आत्मनि स्वस्मिन्विषये न प्रबभूव। आत्मानं नियन्तुं न शशाक। किंतु बहिर्निर्जगामेत्यर्थः॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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नि | वा | त | प | द्म | स्ति | मि | ते | न | च | क्षु | षा |
नृ | प | स्य | का | न्तं | पि | ब | तः | सु | ता | न | नम् |
म | हो | द | धेः | पू | र | इ | वे | न्दु | द | र्श | ना |
द्गु | रुः | प्र | ह | र्षः | प्र | ब | भू | व | ना | त्म | नि |
ज | त | ज | र |