सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
दिश इति॥ तत्क्षणं तस्मिन्क्षणे। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे द्वितीया
(अष्टाध्यायी २.३.५ ) दिशः प्रसेदुः प्रसन्ना बभूवुः। मरुतो वाताः सुखा मनोहरा ववुः। अग्निः प्रदक्षिणार्चिः सन् हविराददे स्वीचकार । इत्थँ सर्वं शुभशंसि शुभसूचकं बभूव। तथा हि-तादृशां रघुप्रकाराणां भवो जन्म लोकाभ्युदयाय। भवतीति शेषः। ततो देवा अपि संतुष्टा इत्यर्थः॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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दि | शः | प्र | से | दु | र्म | रु | तो | व | वुः | सु | खाः |
प्र | द | क्षि | णा | र्चि | र्ह | वि | र | ग्नि | रा | द | दे |
ब | भू | व | स | र्वं | शु | भ | शं | सि | त | त्क्ष | णं |
भ | वो | हि | लो | का | भ्यु | द | या | य | ता | दृ | शाम् |
ज | त | ज | र |